Purnabrahma Stotram in Sanskrit: पूर्णब्रह्म स्तोत्रम् अर्थ सहित
पूर्णब्रह्म स्तोत्रम् भगवान जगन्नाथ अर्थार्थ जग के नाथ को समर्पित एक मधुर और सुंदर भजन है। भगवान जगन्नाथ, जो पूर्णब्रह्म…
Gajendra Moksha Stotram: गजेंद्र मोक्ष स्तोत्रम एक पवित्र और शक्तिशाली स्तोत्र है, जो हिंदू पौराणिक कथाओं में वर्णित है। यह स्तोत्र भगवान विष्णु की आराधना के लिए उपयोग किया जाता है और इसे गजेंद्र मोक्ष के नाम से जाना जाता है। हिन्दू धर्म के अनुसार अलग-अलग मंत्र और स्त्रोत का जाप करते है जिससे उनके घरों में सुख शांति आती है, और सकारात्मक ऊर्जा का वास होता है।
मन्त्रों और स्तोत्रों का उच्चारण करने से सभी परेशानियों से भी छुटकारा मिलता है। मन्त्रों का जाप वास्तव में मस्तिष्क को शांति प्रदान करता है और कई पापों से मुक्ति दिलाकर मनोकामनाओं को पूरा भी करता है। जब बात आती है स्तोत्र के जाप की तो कई ऐसे मन्त्र और स्तोत्र गीता में बताए हैं जिनसे घर की आर्थिक समस्या भी सही हो जाती है।
इन्ही स्तोत्रों में से एक है गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र यानी हाथी को मुक्ति दिलाने वाला स्त्रोत का जाप करना। हमारे हिंदू पुराणों के अनुसार इस स्तोत्र का नियमित जाप करने से एक व्यक्ति को कर्ज से मुक्ति मिलती है और मन की शांति भी प्राप्त होती है। साथ ही किसी भी संकट से मुक्ति मिलती है।
यह स्रोत हिंदू धर्म के प्रथम ग्रंथ ”श्रीमद्भगवद गीता” के द्वतीय (दूसरे), तृतीय (तीसरे) और चतुर्थ (चौथे) अध्याय में गजेंद्र स्तोत्र को वर्णित किया गया है। इस गजेंद्र मोक्ष स्रोत में कुल 33 श्लोक दिए गए हैं। इस स्तोत्र में हाथी (गजेंद्र) और मगरमच्छ (मकर) के साथ हुए युद्ध का वर्णन किया गया है। आइए जानें गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का जाप करने के फायदों के बारे में।
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इस स्तोत्र में एक हाथी (गजेंद्र) और मगरमच्छ (मकर) के बीच हुए युद्ध की कहानी है। इस कहानी में एक हाथी अपने संपूर्ण परिवार के साथ जंगल में सेर कर रहा था और जब उसे बहुत प्यास लगने लगती है तब वो सरोवर के किनारे पानी पीने पहुंच जाता है। सरोवर में कमल के फूल देखकर हाथी जल क्रीड़ा करने पहुंच जाता है। इतने में एक मगरमच्छ उस हाथी का पैर पकड़ लेता है और छोड़ता नहीं है।
हाथी के सभी परिवार वाले उसे बाहर निकालने की कोशिश करते हैं और अंत में वहीं छोड़कर चले जाते हैं। हाथी बाहर आने की कोशिश करता है, परंतु मगरमच्छ (मकर) उसका पैर नहीं छोड़ता है। जब हाथी (गजेंद्र) पूरी तरह से डूबने लगता है।
तब उसने परम पूज्य श्रीहरि यानी भगवान विष्णु को पुकारते हुए उनकी जो स्तुति की थी वही गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र के नाम से जानी जाती है। इस स्तुति को सुनकर भगवान् विष्णु वहां उस हक़ की रक्षा करने पहुँच गए और गज की रक्षा की। तभी ये ये स्तोत्र सभी तरह के संकटों से मुक्ति के मार्ग दिखाता है।
सरल भाषा में समझा जाये तो गजेंद्र मोक्ष स्तोत्रम की कथा एक हाथी के बारे में है, जो एक सरोवर में रहता था। एक दिन, एक मगरमच्छ ने उस हाथी को पकड़ लिया और उसे अपने पंजे में जकड़ लिया। हाथी ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की और उन्हें अपनी स्थिति से बचाने के लिए कहा। भगवान विष्णु ने हाथी की प्रार्थना सुनी और उसे मगरमच्छ के पंजे से मुक्त किया।
यह स्रोत हिंदू धर्म के प्रथम ग्रंथ ”श्रीमद्भगवद गीता” के द्वतीय (दूसरे), तृतीय (तीसरे) और चतुर्थ (चौथे) अध्याय में गजेंद्र स्तोत्र को वर्णित किया गया है। इस गजेंद्र मोक्ष स्रोत में कुल 33 श्लोक दिए गए हैं। इस स्तोत्र में हाथी और मगरमच्छ के साथ हुए युद्ध का वर्णन किया गया है।
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्रम का अर्थ है “हाथी की मुक्ति”। यह स्तोत्र भगवान विष्णु की शक्ति और कृपा को दर्शाता है, जो अपने भक्तों को किसी भी संकट से मुक्त करते हैं।
श्रीमद्भागवतान्तर्गतगजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन
श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥ 1॥
अर्थ – शुक्र जी ने कहा, बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदयदेश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्वजन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार-बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्रका मन-ही-मन पाठ करने लगा ॥ 1॥
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥ 2 ॥
अर्थ– गजेंद्र ने मन ही मन श्री हरी को ध्यान करते हुए कहा कि, जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतनता को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन की भाँति व्यहार करने लगते हैं (चेतन बन जाते हैं), ॐ ‘ओम्’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सभी शरीरों में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन-ही-मन नमन करते हैं ॥ 2 ॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥ 3 ॥
अर्थ– जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे निकला है, जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं- फिर भी जो इस दृश्य जगत्से एवं उसकी कारण भूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण) एवं श्रेष्ठ हैं – उन अपने-आप – बिना किसी कारण के बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूँ। ॥3 ॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥ 4 ॥
अर्थ– अपनी संकल्प-शक्ति के द्वारा अपने ही रूप में रचे बेस हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र-प्रसिद्ध कार्य-कारण रूप जगत् को जो अकुण्ठित-दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं – उनसे लिप्त नहीं होते. वे चक्षु आदि प्रकाश के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥4॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः। ॥ 5 ॥
अर्थ– समय के प्रवाह से संपूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादी लोकपालों के पञ्चभूतों में प्रवेश कर जाने पर तथा पञ्चभूतों से लेकर महत्तत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण कारणों के उनकी परम कारणरूपा प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्जेय तथा अपार अन्धकार रूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान् सब ओर प्रकाशित रहते हैं, वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ 5 ॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥ 6 ॥
अर्थ– भिन्न-भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नहीं जान पाते, उसी प्रकार सत्त्वप्रधान देवता अथवा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नहीं जानते, फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है- वे दुर्गम चरित्रवाले प्रभु मेरी रक्षा करें ।॥ 6 ॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥ 7 ॥
अर्थ– आसक्ति से सर्वथा छूटे हुए, सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले, सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु-स्वभाव मुनिगण जिनके परम मङ्गलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रहकर अखण्ड ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते है, वे प्रभु ही मेरी गति है। ॥ 7 ॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यःस्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥ 8 ॥
अर्थ– वह जिनका हमारी जिनका हमारी तरह कर्मवश न तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी जो समय के अनुसार जगत् की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वयं की इच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥ 8 ॥
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥ 9 ॥
अर्थ– उस अनंत शक्ति वाले परम ब्रह्मा परमेश्वर को नमस्कार है। उन प्राकृत आकार रहित एवं अनेकों आकार वाले अद्भुतकर्मा भगवान् को बार-बार नमस्कार है ॥ 9 ॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥10 ॥
अर्थ– स्वयं प्रकाशित सभी साक्ष्य परमेश्वर को मेरा शत् शत् नमन है। वैसे देव जो नम, वाणी और चित्तवृतियों से परे हैं उन्हें मेरा बारंबार नमस्कार है। ॥ 10 ॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥ 11॥
अर्थ– विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुण विशिष्ट निवृत्ति धर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष-सुख के देने वाले तथा मोक्ष-सुख की अनुभूतिरूप प्रभु को नमस्कार है ॥ 11 ॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥ 12 ॥
अर्थ– सभी गुणों के स्वीकार शांत, रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को अपनाकर मूढ से प्रतीत होने वाले, बिना भेद के और हमेशा सद्भाव से ज्ञानधनी प्रभु को मेरा नमस्कार है। ॥ 12 ॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥13 ॥
अर्थ– शरीर, इन्द्रिय आदि के समुदायरूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षीरूप आपको नमस्कार है। सबके अन्तर्यामी, प्रकृति के भी परम कारण, किंतु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥ 13 ॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥14 ॥
अर्थ– सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, रामस्त प्रतीतियों के कारणरूप, सम्पूर्ण जड-प्रपञ्च एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥ 14 ॥
नमो नमस्ते खिल कारणायनिष्कारणायद्भुत कारणाय।
सर्वागमान्मायमहार्णवायनमोपवर्गाय परायणाय॥15 ॥
अर्थ– सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है। सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को निमस्कार है। ॥ 15 ॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपायतत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥ 16 ॥
अर्थ– जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानमय अग्नि है, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य-वृत्ति जाग्रत् हो जाती है तथा आत्मतत्त्व की भावना के द्वारा विधि-निषेधरूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित रहते हैं, उन प्रभु को मैं नमन करता हूँ ॥ 16 ॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥17 ॥
अर्थ– मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्यधिक दयालु एवं दया करने में कभी आलस्य न करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है। अपने अंश से सम्पूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्वनियन्ता अनन्त परमात्मा आपको नमस्कार है ॥ 17 ॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥18 ॥
अर्थ– जो घर, पुत्र, शरीर ,मित्र, और संपत्ति सहित कुटुंबियों में अशक्त लोगों के द्वारा कठिनाई से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप, सर्वसमर्थ भगवान् को नमस्कार है ॥ 18 ॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥19 ॥
अर्थ– वह जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन और मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं, अपितु जो उन्हें अन्य प्रन्कार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्तिसे सदाके लिये उबार लें ॥ 19 ॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलंगायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥ 20 ॥
अर्थ– वह जिनके अनन्य भक्त – जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान् के ही शरण हैं – धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नहीं चाहते, अपितु उन्होंके परम मङ्गलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्दक समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥ 20 ॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥ 21 ॥
अर्थ– उन ब्रह्मादि, सर्वव्यापी, सर्वमान्य,अविनाशी के भी नियामक, अभक्तों के लिए भी हमेशा प्रकट होने वाले, भक्तियोग से प्राप्त, बहुत पास होने पर भी माया के कारण बहुत दूर महसूस होने वाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य और अत्यंत दुर्विज्ञेय, अंतरहित लेकिन सभी के आदिकारक और सभी तरफ से परिपूर्ण उस भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ। ॥ 21 ॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥ 22 ॥
अर्थ– वो जो ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा सम्पूर्ण चराचर जीव नाम और आकृतिके भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥ 22 ॥
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥ 23 ॥
अर्थ– जिस प्रकार जलती हुई अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार-बार निकलती हैं और पुनः अपने कारण में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर – यह गुणमय प्रपञ्च जिन स्वयम्प्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्हीं में लीन हो जाता है ॥ 23 ॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः॥ 24 ॥
अर्थ– वह भगवान जो भगवान् वास्तव में न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य है न तिर्यक् (मनुष्य से नीची – पशु, पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी हैं। न वे स्त्री हैं न पुरुष और न नपुंसक ही हैं। न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश न हो सके। न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही। सबका निषेध हो जानेपर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है। ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिए आविर्भूत हों। ॥24॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥ 25 ॥
अर्थ– अब मैं इस मगरमच्छ के चंगुल से छूटकर जीवित रहना नहीं चाहता, क्योंकि भीतर और बाहर – सब ओर से अज्ञान के द्वारा ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है। मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका काल क्रम से अपने-आप नाश नहीं होता, अपितु भगवान् की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥ 25 ॥
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥ 26 ॥
अर्थ– इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मै विश्व के रचयिता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मारूप से अजन्मा, व्याप्त, प्राप्तव्य एवं सर्वव्यापक वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्रीभगवान् को केवल प्रणाम ही करता हूँ – उनकी शरण में हूँ ॥ 26 ॥
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥ 27 ॥
अर्थ– वह जिन्होंने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे बोगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हें प्रकट हुआ देखते है, उन योगेश्वर भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 27 ॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥ 28॥
अर्थ– जिनकी सत्त्व-रज-तमरूप (त्रिगुणात्मक) शक्तियों का रागरूप वेग और असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे है, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची-पची रहती हैं- ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असम्भव है, उन शरणागत रक्षक एवं अपार शक्तिशाली आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 28 ॥
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥ 29 ॥
अर्थ– वह जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नहीं पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान् की मै शरण आया हूँ ॥ 29 ॥
श्री शुकदेव उवाच
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषंब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥ 30 ॥
अर्थ– श्री शुकदेव जी कहते हैं कि, जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान् के भेदर हित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था, उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नहीं आये, जो भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब साक्षात् श्रीहरि – जो सबके आत्मा होने के कारण दिवस्वरूप हैं- वहाँ परकट हो गये। ॥ 30 ॥
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥ 31 ॥
अर्थ– उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुखी देखकर तथा उसके द्वारा पढ़ी हुई स्तुति को सुनकर सुदर्शन चक्रधारी जगदाधार भगवान् इच्छानुरूप वेग वाले गरुड़ जी की पीठ पर सवार हो स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थानपर पहुँच गये, जहाँ वह हाथी था ॥ 31 ॥
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥ 32 ॥
अर्थ– सरोवर के अंदर महाबलशाली मगरमच्छ द्वारा जकड़े और दुखी उस हाथी ने आसमान में गरुड़ की पीठ पर बैठे और हाथों में चक्र लिए भगवान् विष्णु को आते हुए अपनी सूँड़ को- जिसमें उसने [पूजाके लिये] कमल का एक फूल ले रक्खा था- ऊपर उठाया और बड़ी ही कठिनता से ‘सर्वपूज्य भगवान् नारायण ! आपको प्रणाम है’, यह वाक्य कहा ॥ 32 ॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥ 33 ॥
अर्थ– लाचार हाथी को देखकर श्री हरी विष्णु, गरुड़ से नीचे उतरकर सरोवर में उतर आये और बेहद दुखी होकर ग्राह सहित उस गज को तुरंत ही सरोवर से बहार निकाल आये और देखते ही देखते अपने चक्र से मगरमच्छ के गर्दन को काट दिए और हाथी को उस पीड़ा से बहार निकाल लिया।॥33॥
इस स्तोत्र के नियमित जाप से व्यक्ति को कई लाभ होते हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्रम का जाप करने के लिए निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए:
गजेंद्र मोक्ष स्त्रोत एक पवित्र और शक्तिशाली स्तोत्र है, जो भगवान विष्णु की महिमा का वर्णन करता है। इस स्तोत्र में गजेंद्र ने भगवान की शरण में आकर अपने जीवन को बचाने के लिए प्रार्थना की है।
इस स्तोत्र के माध्यम से, हमें भगवान की महिमा और उनकी शक्ति का पता चलता है। भगवान विष्णु सारे संसार के आधार हैं, जिन्होंने इस संसार को बनाया है और जो प्रकृति का स्वरूप हैं। गजेंद्र मोक्ष स्त्रोत हमें यह भी सिखाता है कि भगवान की शरण में आकर हम अपने जीवन को बचा सकते हैं। भगवान हमारी रक्षा करते हैं और हमें संकटों से बचाते हैं।
इस स्तोत्र का पाठ करने से हमें भगवान के प्रति श्रद्धा और विश्वास बढ़ता है, और हमें अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन करने में मदद मिलती है। गजेंद्र मोक्ष स्त्रोत एक पवित्र और शक्तिशाली स्तोत्र है, जो हमें भगवान की महिमा का वर्णन करता है और हमें उनकी शरण में आकर अपने जीवन को बचाने के लिए प्रेरित करता है।
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